इक वह दिन, जब खुली के नीचे अपना jaha tha , खुशिया थी , गम थे , मस्तियो का कारवां था , लड़ते थे , झगड़ते थे ,रोते हस्ते & रुठते -मनाते थे हॉस्टल का खाना हो , या ढाबे के पराठे; सब मिल खाते थे! होता था घर से पैसो का इन्तेजार , हरदम थी हालत खस्ती फिर भी होती थी पहले हफ्ते में सारे ढाबो की मस्ती , गोदावरी की काफ्फी , साबरमती के पकोड़े या फिर गंगा की ब्रेड रोल और चाय Library Canteen का खाना ,या फिर "युनुस भैया, आज क्या बनाए !! दिन थे मजेदार , प्रिया front stall में जाते थे कुछ ना था फिर भी बहुत कुछ था ... हम मुस्कुराते थे !!!
आज जमी अपनी है , आसमा अपना है और अपना सारा जहाँ है लोगो की भीड़ है , फिर भी दोस्तों के बिन यह गुलिस्ता वीरां है !
“I’m often lost in a world so new with thoughts so wild, they speak only of you, Who are you?? I often question myself are you just a figment of my imagination or are you someone true…..??
When I open my eyes you instantly vanish and reappear to disturb me when I’m asleep, In the stillness of the night just like a thief in my dreams you stealthily creep.
You’ve stolen my sleep and looted my peace You’ve come like a gentle breeze to make my heart standstill and my heartbeats freeze!!”
लफ्ज़ गूंजते . या फिर ख़ामोशी का असर होता कंधे पर जुल्फे होती तो ..आज हथेलियों में ना सर होता ..
तुझसे बिचड़ के मैं हर रोज मर के जीता हूँ तू मिलती तो.. शायद कुछ और हसर होता ..
काश यूँ होता तो क्या होता ... काश यूँ ना होता तो क्या होता ... तू गर मिल जाती तो , मिल जाती जन्नत मुझे पर शायद तेरे ना मिलने से, 'मीत' गम से बेखबर होता !!!