इक वह दिन, जब खुली के नीचे अपना jaha tha ,
खुशिया थी , गम थे , मस्तियो का कारवां था ,
लड़ते थे , झगड़ते थे ,रोते हस्ते & रुठते -मनाते थे
हॉस्टल का खाना हो , या ढाबे के पराठे; सब मिल खाते थे!
होता था घर से पैसो का इन्तेजार , हरदम थी हालत खस्ती
फिर भी होती थी पहले हफ्ते में सारे ढाबो की मस्ती ,
गोदावरी की काफ्फी , साबरमती के पकोड़े या फिर गंगा की ब्रेड रोल और चाय
Library Canteen का खाना ,या फिर "युनुस भैया, आज क्या बनाए !!
दिन थे मजेदार , प्रिया front stall में जाते थे
कुछ ना था फिर भी बहुत कुछ था ... हम मुस्कुराते थे !!!
आज जमी अपनी है , आसमा अपना है और अपना सारा जहाँ है
लोगो की भीड़ है , फिर भी दोस्तों के बिन यह गुलिस्ता वीरां है !
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment