Sunday, April 18, 2010

दो लम्हे

एक

कभी यूँ भी होता है
इक आम शाम भी खास बन जाती है
एक लम्हा सदियों को तरन्नुम दे जाता है
और उमरें उस पल को गुनगुनाते बीत जाती है ||
वो इंडिया गेट की शाम भी कुछ ऐसी ही थी
जब तेरे एहसास ने मुझे छुआ था
जनवरी की धुप की मुस्कराहट ने
राजपथ को रंगीन कर दिया था
बस उस पल यूँही लगा काश
"मीत" इस लम्हे में सदिया बीत जाए

दो

कभी यूँ भी होता है
इक आम शाम भी खास बन जाती है
एक लम्हा सदियों की यादे दे जाता है
और उमरें उस पल को मुस्कुराते बीत जाती है ||
वो शाम भी कुछ ऐसी ही थी
जब तू मेरे करीब था ;
आज फिर में राजपथ पर हूँ
और इंडियागेट के काले -सफ़ेद कैनवास पर
यादो को उतार रहा हूँ
इस गुनगुनाती धुप की जलन का
"मीत" अब तेरे पास मलहम भी नहीं है
बस अब यूँही लगता है
काश उस पल में सदिया बीत गयी होती



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