Friday, April 16, 2010

Kagaj ke tukado ke dil nahi hote

सहेज रखा है मैंने ,
पहली बस -टिकट को,
कॉफ़ी की पहली रसीद,
चोकलेट का पहला रेपर,
और तेरे पहले ईमेल को !
पहली तकरार के हरे कांच की चूड़िया के टुकडे,
इक काजल की आधी खाली डिब्बी ,
आज भी मेरे लैपटॉप पर तेरी लगाई हुई बिंदी मौजूद है !

संभाल रखा है मैंने हर इक ख़त को ,
जिसके लफ्जों में हर बार तेरी दस्तक सुनाई देती है !
इक वो दिन जब ये ही मेरा सब कुछ होते थे,
इक ये दिन जब "उफ़" होती है इनको अपना कहने मे !

अक्सर बातो से
जज्बातों के मसले हल नहीं होते
पर शायद तुम सही कहती हो ,
कागजो के दिल ही नहीं होते !

मुमकिन है यह भी "मीत", दिल होते ही नहीं है !!!

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