Sunday, December 12, 2010

कौन हूँ मैं ,

A masterpiece on internet .. Source Anonymous


कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं .

एक दोस्त है कच्चा पक्का सा ,
एक झूठ है आधा सच्चा सा .
जज़्बात को ढके एक पर्दा बस ,
एक बहाना है अच्छा अच्छा सा .

जीवन का एक ऐसा साथी है ,
जो दूर हो के पास नहीं .
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं .

हवा का एक सुहाना झोंका है ,
कभी नाज़ुक तो कभी तुफानो सा .
शक्ल देख कर जो नज़रें झुका ले ,
कभी अपना तो कभी बेगानों सा .

जिंदगी का एक ऐसा हमसफ़र ,
जो समंदर है , पर दिल को प्यास नहीं .
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं .

एक साथी जो अनकही कुछ बातें कह जाता है ,
यादों में जिसका एक धुंधला चेहरा रह जाता है .
यूँ तो उसके न होने का कुछ गम नहीं ,
पर कभी - कभी आँखों से आंसू बन के बह जाता है .

यूँ रहता तो मेरे तसव्वुर में है ,
पर इन आँखों को उसकी तलाश नहीं .
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं

Monday, October 11, 2010

Raajdaar

मेरे राज भी अब मेरे न रहे जाहिर उसने जो सरेआम कर दिया
और जब रहा ही नहीं कोई राज, उसे मेरा राजदार न कहो !!!

प्यार तो अब भी बेशुमार है हमारे दरमियाँ
बस इस फासले को दरमियाँ ना कहो


- rita

Wednesday, September 15, 2010

Anonymous

got this gem over the internet and loved it


मत इंतज़ार कराओ हमे इतना
कि वक़्त के फैसले पर अफ़सोस हो जाये
क्या पता कल तुम लौटकर आओ
और हम खामोश हो जाएँ

दूरियों से फर्क पड़ता नहीं
बात तो दिलों कि नज़दीकियों से होती है
दोस्ती तो कुछ आप जैसो से है
वरना मुलाकात तो जाने कितनों से होती है

दिल से खेलना हमे आता नहीं
इसलिये इश्क की बाजी हम हार गए
शायद मेरी जिन्दगी से बहुत प्यार था उन्हें
इसलिये मुझे जिंदा ही मार गए

मना लूँगा आपको रुठकर तो देखो,
जोड़ लूँगा आपको टूटकर तो देखो।
नादाँ हूँ पर इतना भी नहीं ,
थाम लूँगा आपको छूट कर तो देखो।

लोग मोहब्बत को खुदा का नाम देते है,
कोई करता है तो इल्जाम देते है।
कहते है पत्थर दिल रोया नही करते,
और पत्थर के रोने को झरने का नाम देते है।

भीगी आँखों से मुस्कराने में मज़ा और है,
हसते हँसते पलके भीगने में मज़ा और है,
बात कहके तो कोई भी समझलेता है,
पर खामोशी कोई समझे तो मज़ा और है...!

मुस्कराना ही ख़ुशी नहीं होती,
उम्र बिताना ही ज़िन्दगी नहीं होती,
दोस्त को रोज याद करना पड़ता है,
क्योकि दोस्त कहना ही दोस्ती नहीं
Anonymous

Monday, July 5, 2010

काश

लफ्ज़ गूंजते . या फिर ख़ामोशी का असर होता
कंधे पर जुल्फे होती तो ..आज हथेलियों में ना सर होता ..
तुझसे बिचड़ के मैं हर रोज मर के जीता हूँ
तू मिलती तो.. शायद कुछ और हसर होता ..
काश यूँ होता तो क्या होता ... काश यूँ ना होता तो क्या होता ...
तू गर मिल जाती तो , मिल जाती जन्नत मुझे
पर शायद तेरे ना मिलने से, 'मीत' गम से बेखबर होता

Sunday, June 13, 2010

बदलाव



ये रुते बहार शायद खाक होने वाली हैं, आजकल बातों बातों में उसका लहजा बदल सा जाता है...



आँखों का रंग बात का लहजा बदल गया,
वो शख़्स एक शाम में कितना बदल गया !
हैरत से सारे लफ़्ज़ उसे देखते रहे,
बातों में अपनी बात को कैसा बदल गया !


हैरानगी नही मुझे इस बात पे कि कौन कितना बदल गया,
कोई शाम-ओ-सहर तो कोई मौसम कि तरह बदल गया ,
जब वक़्त ही नही रहता टिक कर कही ,
तो क्युं चर्चा हैं इसका कि कौन कितना बदल गया !

रुक जाता था लम्हा उसके तस्सवुर में;
मासूमियत उसकी वक्त को मदहोश कर देती थी !
लफ्ज होठों में सिले रहते थे ;
आँखों की बाते, मुझे खामोश कर देती थी !

हाल-ए-दिल कहूँ या सुनाऊं बेवफाई की दास्ताँ;
बदल कर 'मीत' को, वो शक्श खुद बदल गया !


जिन्दगी की राहों मे रस्ते बदल गए
रुख हवा का बदला या हमसफ़र बदल गए
सोचते है आपको याद ना करे
लेकिन आँखे बंद करते ही इरादे बदल गए


नरेश, गंगा तिवारी, प्रदीप, गुरमीत अखिल

Saturday, May 29, 2010

chand khyalat

मिलते हुए दिलों के बीच और था फैसला कोई, उसने मगर बिछड़ते वक़्त सवाल कुछ और कर दिया....



बिछड़ने का आलम कुछ ऐसा था मेरे ' मीत ', इक मोती आँखों का, सारा फ़साना कह गया
इक तेरे तब्बस्सुम के खातिर, मैं सारे दर्दो गम सह गया
ज़माने की सुन, दर्द-ए-बेबशी की आंधियो में मेरा ज़माना बह गया ,
तेरे दीदार की इत्नेजार था, कारवां निकल गया, मैं खड़ा रह गया


मुमकिना फैसलों में एक हिज्र का फैसला भी था,
हमने तो एक बात की ,'मीत' ने तो कमाल कर दिया ....
मेरे लबो पे मोहर थी पर मेरे शीशा ए रूह ने तो
शहर के शहर को मेरा वाकिफ ए हाल कर दिया .....

rawatjee

Thursday, May 6, 2010

जीत या हार

कुछ जीत लिखूँ या हार लिखूँ..या दिल का सारा प्यार लिखूँ..
कुछ अपनो के ज़ाज़बात लिखूँ या सापनो की सौगात लिखूँ..

वो पल मे बीते साल लिखूँ या सादियो लम्बी रात लिखूँ..
सागर सा गहरा हो जाऊं या अम्बर का विस्तार लिखूँ..

मै तुमको अपने पास लिखूँ या दूरी का अहसास लिखूँ..
वो पहली -पहली प्यास लिखूँ या निश्छल पहला प्यार लिखूँ..

सावन की बारिश मेँ भीगूँ या मैं आंखों की बरसात लिखूँ..
कुछ जीत लिखूँ या हार लिखूँ..या दिल का सारा प्यार लिखूँ..

Divya Prakash Dubey

Saturday, April 24, 2010

यार मिलते हैं यहाँ, यारी नही मिलती,
दिल मिल जाते है पर दिलदारी नही मिलती !

कहते हैं कि लोग, उठ रहा था धुआं;
लगी थी आग जिससे, वो चिन्गारी नही मिलती !

जाने क्या बात थी , उलझ गये है दोनो,
बेवफ़ा कहा हमे, पर नजर तुम्हारी भी नही मिलती

कह्ते है ... गिरा दो दर्मिया की दीवारें
मिलेगे दिल कैसे , जब चारदिवारी नही मिलती.

क्युं ताउम्र दौलत के पीछे भागे ए 'मीत',
करो जतन लाख, जमी सारी नही मिलती !

चाहते हें, झीलो मे डूब जाने कि 'मीत',
पर हाय, पलको की पहरेदारी नहीं मिलती !

Thursday, April 22, 2010

Yaadein

अक्सर यूँही , अच्छा लगता है
पुरानी यादो मे खो जाना,
बीते हुए कुछ पन्ने पलटना..
कुछ मीठी बातो पर मुस्कुराना
खुशी के कुछ जुगनु टटोलना..

काश ऐसा हो पाता कभी ....
आँख ही न खुले
यह जानता हूँ , "मीत" मैं ,

पल्को ने कैद कर रखे है कुछ सागर
खुली जो ये, तो मोती झिलमिलायेंगे !!!

Sunday, April 18, 2010

Uljhane

ऐ दोस्त , आ , तुझे मंजर-ए दिल दिखाता हूँ |
अपनी उदासी का सबब, तुझे बताता हूँ |

हाल-ए-दिल, हाल-ए-मुफलसी, हाल
ए- गम ;
उलझा हूँ , मैं तुझे भी उलझाता हूँ |

कब वो मुझे जानेगे, कब समझेंगे ;
खुद नासमझ हूँ .. आ, तुझे समझता हूँ |

यह उम्मीद है की ना मिलेगा उन्हें मुझसा कोई
इसी उम्मीद से "'मीत ' दिल को अपने बहलाता हूँ

Kuch anchuye khayaalat

मझधार का सामना मैं, क्योंकर करू
रूठ गया है माझी कश्ती में, बैठा के मुझे !

कुछ इस तरह से ख्याल ने उलझाया है तेरे ,
हर गली शहर की दिल्लगी लगती है मुझे

बस ख्वाबों में ही तेरा तस्सवुर है
जगाता रहता है ऐ 'मीत" मेरा बिस्तर मुझे

बेसुध हूँ , बेहोश हूँ, पर बेवफा नहीं ए "मीत"
आईने में अक्स तेरा, अबभी नजर आता है मुझे |

Madhoshi aur Jutsju

मय की मदहोशी का आलम क्या बताऊ ऐ दोस्त ..
सूरज की तपिश चांदनी का मखमल लगती है
और लफ्जो की गुफ्तगू गजल लगती है
यह मर्ज -ए-मौशकी है या फिर दर्द-ए -जुत्सुजू
उन्हें देख "मीत" हालत संभल लगती है
दो लम्हे

एक

कभी यूँ भी होता है
इक आम शाम भी खास बन जाती है
एक लम्हा सदियों को तरन्नुम दे जाता है
और उमरें उस पल को गुनगुनाते बीत जाती है ||
वो इंडिया गेट की शाम भी कुछ ऐसी ही थी
जब तेरे एहसास ने मुझे छुआ था
जनवरी की धुप की मुस्कराहट ने
राजपथ को रंगीन कर दिया था
बस उस पल यूँही लगा काश
"मीत" इस लम्हे में सदिया बीत जाए

दो

कभी यूँ भी होता है
इक आम शाम भी खास बन जाती है
एक लम्हा सदियों की यादे दे जाता है
और उमरें उस पल को मुस्कुराते बीत जाती है ||
वो शाम भी कुछ ऐसी ही थी
जब तू मेरे करीब था ;
आज फिर में राजपथ पर हूँ
और इंडियागेट के काले -सफ़ेद कैनवास पर
यादो को उतार रहा हूँ
इस गुनगुनाती धुप की जलन का
"मीत" अब तेरे पास मलहम भी नहीं है
बस अब यूँही लगता है
काश उस पल में सदिया बीत गयी होती



Friday, April 16, 2010

Kagaj ke tukado ke dil nahi hote

सहेज रखा है मैंने ,
पहली बस -टिकट को,
कॉफ़ी की पहली रसीद,
चोकलेट का पहला रेपर,
और तेरे पहले ईमेल को !
पहली तकरार के हरे कांच की चूड़िया के टुकडे,
इक काजल की आधी खाली डिब्बी ,
आज भी मेरे लैपटॉप पर तेरी लगाई हुई बिंदी मौजूद है !

संभाल रखा है मैंने हर इक ख़त को ,
जिसके लफ्जों में हर बार तेरी दस्तक सुनाई देती है !
इक वो दिन जब ये ही मेरा सब कुछ होते थे,
इक ये दिन जब "उफ़" होती है इनको अपना कहने मे !

अक्सर बातो से
जज्बातों के मसले हल नहीं होते
पर शायद तुम सही कहती हो ,
कागजो के दिल ही नहीं होते !

मुमकिन है यह भी "मीत", दिल होते ही नहीं है !!!

Tuesday, April 13, 2010

ओये जट्टा .. आई बैसाखी

ठण्ड दी ला के चादर
फुल्लां नु जद्द खिड खिड हस्सी आंदी है
उस वैले ही बस बैसाखी आंदी है


बदला नु चुम्दी
हवा विच झूल्दी सुनहरी फसल जड़
जट्ट नु बुलान्दी है
उस वैले ही बस बैसाखी आंदी है

भंगडे ते गिद्दे दी टोली रल के
जद्द पिंड विच तमाला पौन्दी है
उस वैले ही बस बैसाखी आंदी है

मेरे पंजाब दी मिटटी जद वी
मेनू वाजा मार बुलान्दी है
दिल च इक नवी बैसाखी आंदी है

anonymous

Sunday, April 11, 2010

Apne hi kharrate sunker uth gaya galib....
shayad kharrato mai goonj uske "shero" ki thi !!!

Thursday, April 1, 2010

पहले मुफलिस था,
अब चोर बन गया हूँ
पर इस मरे बाज़ार में चुराऊ भी तो क्या
वही चीजे
जिन्हें लुटा कर मैं मुफलिस बना था !!!'

- graffiti at Lohit